Monday, December 5, 2016

यात्रा के रंग : अब पुरी की ओर -2 (राउरकेला का महत्व)

                                                                                              - मिलन सिन्हा 
गतांक से आगे ... करीब तीन घंटे के बाद एक बड़े स्टेशन पर गाड़ी रुकी और डिब्बे में हलचल हुई. कुछ लोग उतरे, कुछ लोग सवार हुए. नीचे उतरा. यह राउरकेला स्टेशन था. वही राउरकेला जो ओड़िशा राज्य के उत्तर-पश्चिम भाग में स्थित प्रदेश का तीसरा बड़ा शहर है. इस नियोजित शहर को अन्य बातों के अलावे सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित होनेवाले देश के पहले बड़े स्टील प्लांट के लिए जाना जाता है. जर्मनी के सहयोग से स्थापित होने वाले राउरकेला स्टील प्लांट के पहले वात भट्ठी (ब्लास्ट फरनेस) का उदघाटन देश के पहले राष्ट्रपति देशरत्न राजेन्द्र प्रसाद द्वारा फरवरी,1959 में किया गया था.  

रात हो चुकी थी. राउरकेला स्टेशन का प्लेटफार्म बिलकुल साफ़ –सुथरा एवं रोशनी में नहाया हुआ लग रहा था. स्टेशन के दूसरे प्लेटफार्म पर नजर गयी तो वहां भी वैसा ही दृश्य था. इन दिनों रेल यात्रा के बेहतर होने, रेल परिचालन एवं व्यवस्था में बेहतरी की बात सुनने को तो मिल ही रही थी, आज देखा तो यकीन हो गया. उम्मीद है, आनेवाले दिनों में यह सिलसिला और सुदृढ़ होगा, क्यों कि उत्कृष्टता कोई मंजिल तो है नहीं, यह भी एक यात्रा ही तो है !

गाड़ी चल पड़ी. लौटा तो पाया कि इस बीच हमारे पास के दो शायिकाओं में ट्रेन में यात्रा के दौरान रात गुजारने दो यात्री आ गए थे. पूछा उनसे तो पता चला कि वे लोग पिछले दो वर्षों से राउरकेला में रहते हैं और आज भुवनेश्वर जा रहे है, एक ऑफिसियल मीटिंग में भाग लेने. राउरकेला के बाबत कुछ और जानने की इच्छा प्रबल हो उठी, सो उनसे पूछ बैठा. उन्होंने हमें बताया कि यह शहर सुन्दरगढ़ जिले में बसा है जो खनिज सम्पन्न इलाका है. दरअसल, यह एक कॉस्मोपॉलिटन सिटी है जो आधुनिकता और पारंपरिकता के साथ-साथ  जनजातीय संस्कृति को भी बढ़िया से समेटे हुए है. औद्योगिक शहर होने के कारण यहाँ देश के हर प्रदेश के लोग रोजगार और नौकरी के सिलसिले में आते-जाते रहते हैं.  1961 में स्थापित राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईटी, राउरकेला) का भी इसमें विशेष योगदान रहा है. इसे ओड़िशा की व्यवसायिक राजधानी के रूप में भी जाना जाता है. यह इलाका नदियों और पहाड़ों से घिरा है. यहाँ दर्शनीय मंदिर और वॉटरफॉल भी हैं. उन्होंने स्थानीय लोगों के रहन-सहन, खान-पान आदि के बारे में भी बताया. 

कुछ देर बाद वे दोनों ऊपर आमने-सामने के बर्थ पर जा बैठे और फिर उनके बीच कामकाजी बातचीत चल पड़ी. एक ने कहा कि उनके बॉस एक काम ख़त्म होने से पहले ही दूसरे काम के लिए अनावश्यक दवाब बनाना शुरू कर देते हैं. ऑफिस समय के बाद वजह-बेवजह डांट–फटकार करते हैं, नौकरी से निकालने की धमकी तक देते रहते हैं. दूसरा व्यक्ति बीच-बीच में उसे प्रैक्टिकल बनने, बॉस को मैनेज करने, थोड़ा चालाक बनने की सलाह दे रहा था, जिसे उसका साथी यह कह कर नकार रहा था कि जब मै पूरी तन्मयता और ईमानदारी से काम कर रहा हूँ, तो गलत हथकंडे क्यों अपनाऊं? दोनों के बीच काफी समय तक गर्मागर्म बातचीत चलती रही. कहने की जरुरत नहीं कि देश –विदेश में खासकर कॉरपोरेट जगत में कार्यरत लाखों अच्छे व सच्चे युवा कर्मियों के लिए यह  मानसिक तनाव का बड़ा कारण रहा है. इसका बहुआयामी नकारात्मक असर खुद उस व्यक्ति पर तो पड़ता है, उसका परिवार भी उससे दुष्प्रभावित होता है. कहने का सीधा अभिप्राय यह कि कई मायनों में समाज के हर संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह एक गंभीर विचारणीय विषय था, है और रहेगा जिसका प्रभावी समाधान व्यक्ति-समाज–सरकार को मिलकर ढूंढने की जरुरत है.

नौ बजने को थे. सबने खाने का उपक्रम शुरू किया, सिवाय एक यात्री के. खाना शुरू करने से पहले मैंने पूछा, तो उन्होंने  बताया कि उनका पेट गड़बड़ है. दिन में कुछ ऐसा-वैसा खा लिया था, सो अब उपवास. दवाई है, जरुरत होगी तो ले लेंगे. कहते हैं, उपवास भी पारम्परिक चिकित्सा पद्धति के अनुसार एक प्रकार का उपचार ही है. शायद तभी भारतीय जीवन पद्धति में उपवास को स्वास्थ्य प्रबंधन का एक अहम हिस्सा माना जाता रहा है.

बहरहाल, अपने-अपने बर्थ पर लेटने के बाद भी बॉस प्रकरण पर कुछ देर तक उन दोनों के बीच चर्चा चलती रही, साथ में सहमति-असहमति का सिलसिला भी. उसी विषय पर विचार एवं समाधान मंथन के क्रम में मैं भी काफी वक्त तक जगा रहा. उस बीच वे लोग सो चुके थे, जिसका पता उनके खर्राटों से चल रहा था. बत्ती बुझा कर मैं भी सो गया.       

बीच में कई छोटे-बड़े स्टेशन आते रहे, ओड़िशा की राजधानी भुवनेश्वर जंक्शन सहित. हलचल–कोलाहल भी होते रहे. क्षण भर के लिए उचटती-टूटती-फिर गहराती नींद के बीच करवटें बदलते हुए यात्रा जारी थी. ...आगे जारी 
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               और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं
# साहित्यिक पत्रिका 'नई धारा' में प्रकाशित 
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Saturday, December 3, 2016

यात्रा के रंग : अब पुरी की ओर -1

                                                                                      - मिलन सिन्हा 

कई सालों की इच्छा और अनेक बार बनाए गए कार्यक्रम को  साकार करने का दिन था. देश के एक प्रसिद्ध धार्मिक–आध्यात्मिक के साथ–साथ एक बेहद लोकप्रिय पर्यटन स्थल ‘पुरी’ प्रस्थान के लिए घर से निकला. ऑटो से हमें  हटिया स्टेशन जाना था. बताते चलें कि झारखण्ड की राजधानी रांची शहर में दो रेलवे स्टेशन है, एक रांची और दूसरा हटिया. दक्षिण पूर्व रेलवे के इस महत्वपूर्ण स्टेशन से रोजाना दर्जनों ट्रेनों का आना-जाना है. खैर, ऑटो से हम चल पड़े. घर से हटिया स्टेशन करीब पांच किलोमीटर होगा. रास्ते में कई चौराहे आते हैं. हर चौराहे पर ट्रैफिक पुलिस आवागमन को सुचारू बनाए रखने के लिए तैनात रहती है. रांची की सड़कें ठीक-ठाक हैं, चौड़ी भी हैं, लेकिन कई स्थानों में अतिक्रमण का असर साफ दिखता है, हाई कोर्ट तक ने इस पर एकाधिक बार नाराजगी जताई है. सड़क पर हर तरह के वाहनों – साइकिल, मोटरसाइकिल, स्कूटर, रिक्शा, ठेला, ऑटो, कार, सिटी बस, स्कूल बस आदि की संख्या बढ़ती आबादी और अति सुलभ बैंक लोन (ऋण) के कारण निरंतर बढ़ती जा रही है. ट्रैफिक नियमों के अनुपालन में सुधार की बड़ी गुंजाइश तो है ही. ऐसी परिस्थिति में घर से स्टेशन पहुंचने के लिए सामान्य यात्रा समय से एक घंटे का मार्जिन लेकर चलने के बावजूद हम लोग ट्रेन खुलने से मात्र पांच मिनट पहले हटिया स्टेशन पहुंच सके, वह भी तब जब ऑटो चालक ने ज्यादा भीड़ वाले एक-दो चौराहे से पहले ही गलियों के रास्ते गाड़ी निकालने की बुद्धि लगाईं.    

वहां पहुँचते ही जाने क्यों स्मृति के एक कोने से गाने की ये पंक्तियां सुनाई देने लगी, गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है .... जल्दी से एक नंबर प्लेटफार्म पर पहुंचा. डिब्बे में सामान रखा. तपस्वनी एक्सप्रेस ट्रेन, जो अपराह्न 4 बजे हटिया से रवाना होकर अगले दिन सुबह 7.15 बजे पुरी स्टेशन पहुँचती है, समय से खुल गयी. 

कम समय में ही जितना देख पाया, हटिया स्टेशन परिसर की सफाई बेहतर लगी. सूटकेस –बैग आदि को ठीक से रखने और अपनी सीट पर इत्मीनान से बैठने के कुछ देर बाद डिब्बे का मुआयना कर लिया. सफाई सहित अन्य बातें भी संतोषप्रद थीं. 

अमूमन ट्रेन के सामान्य आरक्षित डिब्बे के एक खाने में आठ लोगों के शयन हेतु शायिका की व्यवस्था होती है. हम जहाँ बैठे थे वहां गाड़ी खुलते वक्त 6 लोग आ चुके थे. आपसी वार्तालाप में पता चला कि उनमें जो दो लड़के थे, वे भुवनेश्वर तक जायेंगे और हमारे अलावे एक अल्पवय दंपति पुरी तक. गाड़ी के रफ़्तार पकड़ते ही चाय, समोसा, चना, चिप्प्स आदि बेचने वाले आने-जाने लगे, अलग-अलग स्वर व अंदाज में आवाज लगाने लगे. ट्रेन यात्रा में ऐसे खाने –पीने का सामान बेचने वाले अगर न हो तो यात्रा कैसी होगी, ऐसा हमने कभी सोचा भी है ? शायद कई लोगों को भूखे-प्यासे ही सोना पड़े, जीभ जैसे संवेदनशील अंग को तरसते-तड़पते कई घंटे गुजारने पड़े, स्वरोजगार के मार्फ़त अपने और अपने परिवार का लालन-पालन करनेवाले अनेक लोगों को बेकार-बेजार रहना पड़े, अनेक पुलिसवाले और रेल कर्मियों को खाने-पीने के लिए अपनी जेब ढीली करने पड़े.... 

खैर, जैसे हमें उनकी जरुरत है, वैसे ही उन्हें हमारी जरुरत होती है. माने-न-माने दिलचस्प पहलू यह भी है कि क्रेता-बिक्रेता का यह अस्थायी संबंध हमारी यात्रा में हमें जाने-अनजाने जीवन के कितने अनछुए पहलुओं से परिचित  करवाता है, हमारे जीवन को थोड़ा और सक्रिय कर जाता है – सोच व भावनाओं के स्तर पर ही सही.  ... ....आगे जारी 
                                                                   (hellomilansinha@gmail.com)

               और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं 
# साहित्यिक पत्रिका 'नई धारा' में प्रकाशित 
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