Tuesday, July 29, 2014

राजनीति: नेताओं के कहने व करने में बड़ा फर्क

                                                                                 - मिलन सिन्हा
Displaying BP896472-large.pngअपवादों को छोड़ दें तो आजकल भारतीय राजनीति के बड़े -छोटे सभी नेता राजनीति को सेवा का पर्याय बताने में जुटे रहते हैं, लेकिन अपने राजनीतिक विरोधियों के आरोपों  को 'राजनीति से प्रेरित ' कहकर ख़ारिज करने की कोशिश भी करते रहते हैं । आखिर ऐसा क्यों और कैसे संभव है ? अगर राजनीति वाकई सेवा नीति है तो  राजनीति से प्रेरित बात बुरी और अमान्य कैसे हो सकती है ! फिर मौजूदा राजनीति में विचार -व्यवहार एवं कथनी -करनी में इतना अन्तर होने और दीखने का सबब क्या है; राजनीति के स्तर में गिरावट क्यों है ? 

 देश के विभाजन की  बुनियाद पर मिली आजादी के साथ ही भारतीयता और नैतिकता में  क्षरण की शुरुआत हुई । स्वतन्त्रता आन्दोलन में पले -बढ़े  देश भक्त नेता -कार्यकर्त्ता इसे सम्हालने का प्रयास करते रहे । लेकिन लाल बहादुर शास्त्री के  निधन के बाद सत्ता के लिए राजनीतिक जोड़ -तोड़  ने देश में भविष्य की राजनीति की दिशा तय करने का काम किया जो आपातकाल के काले अध्याय से गुजरता हुआ आज यहां तक पहुँच चुका है । नेताओं ने सादा जीवन, उच्च विचार के सिद्धान्त और संस्कार को तिलांजलि दे दी और  आडंबर, विलासिता, भाई -भतीजावाद एवं भ्रष्टाचार को अंगीकार कर लिया । रोकने -टोकने वाली सरकारी मशीनरी में जंग लगने लगे । इस बीच लोकतन्त्र के चारों स्तम्भों को सुनियोजित ढंग से कमजोर करने का काम भी चलता रहा ।  जहाँ तक कानून के सामने सबकी समानता के सिद्धांत का प्रश्न है, सरकार  इसकी दुहाई तो देती रही,  पर जमीनी हकीकत  भिन्न बनी रही । 

देश  की राजनीति में प्रकाश स्तम्भ रहे गांधी, अम्बेदकर, लोहिया, जय प्रकाश, दीन दयाल और नम्बूदरीपाद सरीखे  नेताओं के नाम पर राजनीति करने वाले और खुद को उनका सच्चा अनुयायी बतानेवाले ही आज की राजनीति के शीर्ष पर बैठे हैं, सत्तारूढ़ भी हैं या रहे हैं  और  मंच से कमोवेश वही बातें कर  रहे हैं, परन्तु उनके कहने और करने में  बड़ा फर्क आ गया है - मात्र उसी से आज की राजनीति परिभाषित हो जाती है । ऐसे सभी नेताओं को लोहिया द्वारा लोक सभा में 4  अगस्त 1967 को दिए गए भाषण को कम से कम एक बार जरूर पढ़ना चाहिए । शायद इससे कुछ फर्क पड़ जाए । 

                  और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Tuesday, July 22, 2014

राजनीति: बिहार में बदलती राजनीति के निहितार्थ

                                                          - मिलन सिन्हा 

Displaying BP896471-large.jpgराजनीति के रंग निराले होते हैं और राजनीति में रंग बदलने वाले नेताओं के बयान एवं  व्यवहार भी कम निराले नहीं होते हैं। फिर बिहार की राजनीति के नित बदलते इन्द्रधनुषी रंग के क्या कहने ? राजनीतिक विश्लेषक बिहार को राजनीति का प्रयोगशाला यूँ ही थोड़े ही कहते हैं ? पिछले 13 महीने के राजनीतिक घटना क्रम पर संक्षेप में ही  गौर कर ले तो इसकी सच्चाई और इनमें छुपे निहितार्थ को जानना -समझना आसान हो जाएगा।  

दरअसल, जून 2013 में भाजपा द्वारा नरेन्द्र मोदी को प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार बनाये जाने की संभावना को मुद्दा बनाकर तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में जदयू ने भाजपा के साथ गठबंधन को अलविदा कहने और कांग्रेस के चार विधायकों के समर्थन से बिहार में सरकार चलाने का कठिन काम जारी रखने के निर्णय के साथ ही आने वाले दिनों में बिहार की राजनीतिक दिशा-दशा में अप्रत्याशित परिवर्तन के संकेत मिलने शुरू हो गए थे, जो लोकसभा चुनाव के परिणाम आने तक लगभग स्पष्ट होते गए। 

पहले राजद के अंतर्कलह और बाद में जदयू में नेताओं के बागी तेवर से बेवश हुए दोनों दलों के बड़े नेताओं ने भाजपा के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव को रोकने के नाम पर साथ आने का फैसला किया जिससे ज्यादा से ज्यादा दिनों तक सत्ता पर पकड़ बनाये रख सकें। तभी तो राजद ने मांझी सरकार को विधानसभा में समर्थन और फिर राज्यसभा चुनाव में जदयू उम्मीदवारों को मदद किया, जिसे जदयू के सभी बड़े नेता स्वीकारते हैं। हाँ, इस पूरे राजनीतिक घटना क्रम ने बिहार की राजनीति में हाशिये पर पहुँच चुके लालू प्रसाद को पुनर्स्थापित करने का काम किया।

जानकारों का कहना है कि राजद और जदयू दोनों ने यह मान लिया है कि  परिवर्तित  राजनीतिक परिदृश्य में वे अकेले भाजपा का सामना नहीं कर पायेंगे और इसलिए दोनों को साथ मिलकर भाजपा का मुकाबला करना चाहिए। इसके पीछे राजनीतिक सोच व रणनीति के बजाय सामान्य अंकगणित सर चढ़ कर बोल रहा है, तभी तो लालू प्रसाद बोलते हैं कि पिछले लोक सभा चुनाव में राजद और जदयू का सम्मिलित वोट प्रतिशत भाजपा से कहीं ज्यादा है। क्या राजनीति अंकगणित का साधारण खेल है या कुछ और? क्या लालू और नीतीश जैसे बड़े नेता चुनावी राजनीति के मनोवैज्ञानिक व भावनात्मक पहलू से अनजान हैं? क्या प्रदेश की जनता विभिन्न दलों के नेताओं द्वारा हाल तक अलापे जा रहे बयानों-वादों को यूँ ही भुला देगी? क्या देश में तेजी से बदलते राजनीतिक माहौल के बावजूद बिहार में मंडल -कमंडल या पिछड़ा -अगड़ा के नाम पर  चुनाव जीतना अब भी संभव होगा ? शायद नहीं। 

ऐसा नहीं है कि प्रदेश भाजपा में भी सब कुछ बिलकुल ठीक -ठाक चल रहा है, अन्यथा भागलपुर और बांका की संसदीय सीट यूँ ही नहीं हारते  और वह भी तब जब कि भागलपुर से शाह नवाज़ हुसैन जैसे भाजपा के बड़े नेता चुनाव लड़ रहे हों। कहने का अभिप्राय यह कि भाजपा गठबंधन के लिए आने वाला वक्त बहुत ही चुनौतीपूर्ण होगा जब उन्हें  पूरी एकजुटता के साथ बिहार की जनता के सामने एक  स्पष्ट रोड मैप प्रस्तुत करना पड़ेगा। 
                      और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Sunday, July 20, 2014

मोटिवेशन : साधारण - असाधारण

                                                     -मिलन सिन्हा 
Displaying 11652412-0.jpgदेश-विदेश कहीं भी,नियोक्ता एक अच्छे पद पर नियुक्ति के लिए नार्मल   योग्यता के साथ -साथ एक विशेष योग्यता की तलाश हर अभ्यार्थी में करते हैं और वह है लीडरशीप क़्वालिटी।पर यह लीडरशीप क़्वालिटी आखिर किसे कहते हैं? वह जो हम आम राजनीतिक नेता में देखते हैं- बोलो कुछ , करो कुछ ; अपने लिए अलग नियम, दूसरे  के लिए अलग;  तीव्र गति से धन इकठ्ठा करने की चाह लिये पावर के पीछे भागने की ललक आदि। नहीं, बिल्कुल नहींसच्चे मायने में लीडर या नेता वह नहीं जो सिर्फ लेता हो, अपितु वह जो दिल खोल कर देता हो। लीडर को सरल एवं सटीक रूप से परिभाषित करने की कोशिश करें तो कहना होगा कि ऐसा शख्स जो जानता है कि किस रास्ते पर चलना है, उसकी अच्छाई - बुराई क्या है, आसानी -परेशानी क्या है; वह लोगों को उस रास्ते पर चलने को प्रेरित कर सकता है, उनका सही मार्ग दर्शन करने में सक्षम है और सबसे महत्वपूर्ण यह कि जरुरत के अनुसार खुद सबसे पहले उस कठिन व चुनौती भरे मार्ग पर सहर्ष चल पड़े। सबके साथ आगे बढ़ने में जिन्हें खुशी मिले, जिनके विचार तथा व्यवहार में एकरूपता रहे; जो असाधारण होते हुए भी साधारण रहें व साधारण दिखें। 

महात्मा गांधी के जीवन पर नजर डालें तो ये सारे लीडरशीप क़्वालिटी स्पष्ट दिखाई पड़ जाएंगे। अपने देश में आजादी के बाद के नेताओं को देखें तो लालबहादुर शास्त्री से लेकर लोकनायक जयप्रकाश नारायण तक अनेक नेता इसका जीता-जागता उदाहरण हैं।बड़ी कम्पनियां, बड़ी संस्थाएं आदि  सिर्फ नियम कानून के बूते नहीं खड़ी हो जाती हैं। उसे खड़ा करने में उस लीडर की अहम भूमिका होती है जो नई चीजें सीखने से लेकर उसे जमीन पर सहजता से उतारने में सक्षम भी होता है और उपलब्धियों का श्रेय सबमें बांटने में दक्ष व सहृदय।

              और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Wednesday, July 16, 2014

आज की बात: इन पैसों का क्या करेंगे ? चर्चा तो लाजिमी है मंत्रीजी

                                                                 - मिलन सिन्हा 
समाचार पत्रों में बिहार के नगर विकास मंत्री से संबंधित एक रिपोर्ट छपी थी जिसपर  चर्चा लाजिमी है इसलिए कि शहरों के विकास के लिए आप पैसों पर जोर देते हैं पर इस बेतरतीब  शहर और बेकार व्यवस्था को ठीक करने पर गौर नहीं करते.

आइये पहले उक्त खबर को देख लें -”नगर विकास मंत्री ने केंद्र सरकार से बिहार में शहरीकरण की योजनाओं में तेजी लाने के लिए 50 हजार करोड़ रुपये की मांग की है. मंत्री जी ने दिल्ली में इस संबंध में केंद्रीय नगर विकास मंत्री से मिल कर बिहार की योजनाओं का प्रस्ताव दिया. इन योजनाओं में मोनो व मेट्रो रेल परियोजना, मैरिन ड्राइव, वाटर ट्रीटमेंट प्लांट और 10 लाख शहरी गरीब परिवारों को आवास की सुविधाएं उपलब्ध करानी हैं…”

नगर विकास मंत्री ने करदाताओं के पैसे से दिल्ली जाकर केंद्र सरकार के नगर विकास मंत्री से मिल कर बिहार की योजनाओं का प्रस्ताव दिया जिसमें बिहार में शहरीकरण की योजनाओं में तेजी लाने के लिए बहुत बड़ी रकम की मांग की गयी ।

आखिर इसमें नया क्या है ?

पिछले कुछ महीनों में हम सबने विकास के बिहार मॉडल बनाम गुजरात मॉडल पर पक्ष-विपक्ष की बहुत सारी सच्ची-झूठी बातें सुनी। जमीनी हकीकत से बिहार की जनता भी वाकिफ है और गुजरात की जनता भी, फिर हमारे छोटे-बड़े सब राजनीतिक नेता झूठ को सच बनाने में क्यों लगे रहते हैं?

बहरहाल, चर्चा को नगर विकास और वह भी बिहार की राजधानी पटना तक सीमित कर लें तब भी कुछ बुनियादी बातों को समझना आसान हो जाएगा ।

एक बारिश में नरक बन जाता है शहर

पिछले एक दशक में पटना में कंक्रीट का जंगल (बहुमंजिला इमारतें, अपार्टमेंट आदि) बहुत ही बेतरतीब ढंग से फैला है, अनेक मामलों में तो कानून की घोर अवहेलना करके यह सब हुआ है जिस पर हाई कोर्ट तक ने पटना नगर निगम व नगर विकास विभाग को कई बार फटकार लगाई है। मंहगाई और भ्रष्टाचार से बेहाल जनता की गाढ़ी कमाई के कर राजस्व से सड़क और नाले के नाम पर करोड़ों खर्च किये गए, लेकिन मात्र दो दिनों की सामान्य बारिश  पहले से ही गंदे और अनियोजित इस शहर को नरक बनाने के लिए काफी है ।

दिल्ली में बैठकर पटना शहर की स्थिति का गुणगान करने वाले वैसे सभी महानुभावों से गुजारिश है कि राज्यपाल, मुख्यमंत्री व अन्य मंत्रियों के आवास के पास से गुजरते रास्तों को छोड़ कर, वे कम-से-कम पटना के कुछ जाने माने इलाकों जैसे पाटलिपुत्र कॉलोनी, बोरिंग रोड, बेली रोड, राजेंद्र नगर, कंकड़बाग, पटेल नगर आदि का हाल स्वयं देख लें, पटना के बाकी इलाकों की बदहाली का अंदाजा तो उसी से लग जाएगा।

बेली रोड- गिरते पड़ते गुजरने का नाम

पानी से भरे गढ्ढों के बीच सड़क होने का नाम है बेली रोड, कम से कम शेखपुरा से जगदेव पथ तक। यूँ कहें कि बेली रोड तो इस समय धन्नासेठ के बेली यानी पेट और गरीब जनता के बेली (पेट) का साक्षात रूप का एहसास करवाता है । हजारों लोग कैसे इस सड़क से रोज गिरते -पड़ते गुजरते हैं, बिना एक बार गुजरे इस त्रासदी को जानना मुश्किल है ।

दिल्ली जो करे, आप क्या करें?

ऐसी स्थिति अन्य अनेक इलाकों की भी है जिसकी तस्वीर स्थानीय अखबारों में छपती रहती है । क्या इसे सुधारने के लिए भी केन्द्र सरकार के मदद की जरुरत है ? क्या पटना नगर निगम और नगर विकास विभाग के अधिकारियों के साथ साथ पथ निर्माण विभाग के अधिकारियों को संबंधित मंत्रियों द्वारा शहर के विभिन्न इलाकों में कायम इस नारकीय स्थिति को सुधारने का निर्देश देने व उसका अनुपालन सुनिश्चित करने से किसी ने रोका है?

अगर इतना छोटा काम भी नहीं हो सकता तो अगर कारण- अकारण केन्द्र सरकार बड़ी राशि दे भी देती है तो उसका दुरुपयोग छोड़कर और क्या कर लेगी ऐसी सरकारी व्यवस्था ?

दरअसल, सोचने-समझने और करने की बात तो यह है कि इन मूलभूत कार्यों के लिए राज्य सरकार का जो बजटीय प्रावधान है उसका 100% सदुपयोग करने की ईमानदार व त्वरित कोशिश अनिवार्य है, अन्यथा सब कोरी बातें हैं जिनका बिहार की आम जनता के लिए कोई मतलब नहीं ! 

                   और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं
#  'नौकरशाही. इन' में प्रकाशित, दिनांक :16.07.2014

आज की कविता : अंतःमन

                                                          - मिलन सिन्हा 
sunset nature lake hallwil
अंतःमन

सूरज उगता है 
लालिमा छा जाती है 
सूरज डूबता है 
लालिमा फिर छा जाती है 
मनुष्य के जन्म 
एवं 
उसके मृत्यु के वक्त 
अंतःमन में 
कुछ ऐसा ही होता है, क्या? 

               और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

प्रवक्ता . कॉम पर प्रकाशित, दिनांक :07.06.2014

Tuesday, July 15, 2014

राजनीति: संसाधनों का इस्तेमाल है चुनौती

                                                                                   - मिलन सिन्हा 
पिछले गुरुवार को लोकसभा में बजट भाषण के दरम्यान बिहार को विशेष आर्थिक पैकेज या विशेष राज्य का दर्जा देने की न तो कोई घोषणा की गयी, और न ही इसका कोई स्पष्ट संकेत दिया गया । इससे बिहार में दलगत लाइन पर एक बार फिर, तात्कालिक ही सही, राजनीति उबाल देखा जा रहा है । संसाधन की कमी को पिछड़ेपन की एक मात्र वजह बताने पर भी चर्चा चल पड़ी है । बहरहाल, कोई भी पार्टी इस मुद्दे पर कुछ भी कहे, यह तो एक कड़वा सच है ही कि आजादी के करीब 67 साल बाद भी आज बिहार देश का एक पिछड़ा राज्य है, बावजूद इसके कि यहाँ की मिट्टी बहुत उपजाऊ है,  नदियों का जाल बिछा हुआ है; लोग  काफी मेहनती तथा बचत पसंद हैं ; बिहारी छात्र  मेधावी हैं और तो और गत दो दशकों से प्रदेश में कोई राजनीतिक अस्थिरता भी नहीं रही है । कहने की जरुरत नहीं कि अतीत में अनेक गलतियां हुई -नीति,योजना,कार्यान्वयन और नीयत के मामले में भी ।  

विडम्बना है कि एक ओर तो हम आर्थिक पैकेज की मांग करते हैं, वहीं दूसरी ओर यह भी पाते हैं कि कई विभागों को केन्द्र से मिले विभिन्न योजनाओं के पैसे समय पर खर्च न होने के कारण लौट जाते हैं । इस तथ्य से भी हम वाकिफ हैं कि तमाम सरकारी घोषणाओं के बावजूद कमोवेश सभी कल्याणकारी योजनाओं के लिए आवंटित राशि का किस तरह  और कितना   दुरुपयोग   होता रहा है, घोटाले आदि तो साथ में है ही । दुःख की बात है कि राजीव गांधी से लेकर आज तक के हर दल के नेता यह मानते हैं कि आम जनता की भलाई एवं देश-प्रदेश के विकास के निमित्त निर्गत राशि का अमूमन 15% ही सही रूप में इस्तेमाल हो पाता है । बाकी का 85% पैसा  अनियमितता, गोलमाल आदि के भेंट चढ़ता रहा है । सोचिये, अगर सिर्फ इसी सिलसिले को राजनीतिक संकल्प व मार्गदर्शन, प्रशासनिक दक्षता, ईमानदारी और पारदर्शिता  से पलटने की सार्थक कोशिश की जाय, तो  संसाधन की अपर्याप्तता का सवाल कुछ सालों के लिए क्या नेपथ्य में नहीं चला जाएगा ?  

क्या मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान आज भी वही करते रहेंगे, जो पीछे होता रहा या इसे एक अवसर व चुनौती मान कर अबिलम्व उपलब्ध संसाधनों का समुचित प्रबंधन हेतु आवश्यक कदम उठायेंगे ?

                  और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

Saturday, July 12, 2014

आज की बात: 'पहले शौचालय' का सोच बनाम जमीनी हकीकत

                                                                                    - मिलन सिन्हा
indian toiletप्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित देश के कई अन्य प्रभावशाली नेता समय समय पर किसी न किसी मंच से देश में ‘पहले शौचालय’ की चर्चा करके अपनी अपनी चिंता व्यक्त करते रहे हैं। लेकिन बावजूद इसके आकड़ों व तथ्यों पर गौर करें तो शौचालय से जुड़ी समस्या वाकई बेहद सोचनीय है। कहिये, क्या यह शर्म के बात नहीं है कि बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, ओडिशा जैसे बड़े राज्यों में 60 % घरों में शौचालय की बुनियादी मानवीय सुविधा आजादी के 66 बाद भी उपलब्ध नहीं है ?

थोड़ा ठहर कर उन बीमार, बुजुर्ग, महिलाओं, लड़कियों व बच्चों की स्थिति के बारे में सोचिये जिनके घर में शौचालय नहीं है जब कि सरकार कहती है कि एक शौचालय बनाने में 10900 रूपए का खर्च आता है जिसमें 10000 रूपया सरकार देती है और सिर्फ 900 रुपया लाभुक को देना पड़ता है।

क्या हमारे उन नेताओं, मंत्रियों, सरकारी अधिकारियों ने, जो चीख-चीख कर गरीब, शोषित व साधनहीन जनता के प्रति संवेदनशीलता की दुहाई देते हैं, कभी सोचा है कि शाम को किसी गांव से गुजरती सड़क के किनारे शौच के लिए बैठी महिलाओं व लड़कियों की क्या स्थिति होती है जब दूर से आती किसी मोटर वाहन की लाईट देखते ही वे अचानक किस बेवशी में उठ खड़ा होने को मजबूर होती है; उन बच्चियों को कैसा लगता होगा जिन्हें उनके विद्यालयों में शौचालय आदि की सुविधा नहीं होने के कारण स्कूली शिक्षा से वंचित रहना पड़ता है ? क्या यह ‘राइट टू एजुकेशन’ के सिद्धांत की सरकारी अवहेलना नहीं है ?

हाल ही में यूनिसेफ एवं लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग द्वारा ‘सेनिटेशन एंड हाइजीन एडवोकेसी एंड कम्युनिकेशन स्ट्रेटेजी’ विषय पर पटना में आयोजित सेमिनार में बिहार के लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण मंत्री ने मुख्य अतिथि के रूप में भाग लेते हुए कहा कि बिहार वर्ष 2020 तक खुले में शौच से मुक्त होगा। बड़ा सवाल यह है कि जब राज्य सरकार को यह ज्ञात है कि (विशेषकर) गांव की गरीब महिलाओं व बच्चियों की मर्यादा, गरिमा, स्वास्थ्य एवं शिक्षा के लिए शौचालय का न होना कितना बड़ा अभिशाप है, तब इस कार्य को सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर अधिकतम दो वर्षों में पूरा करने का संकल्प लेने के बजाय 2020 तक करने के बात कहना क्या दर्शाता है ?

सोचने वाली बात है कि अगर जनभागीदारी एवं समावेशी विकास के सिद्धान्त पर अमल करते हुए सिक्किम, केरल व हिमाचल प्रदेश इस सामजिक बुराई से निबटने में उल्लेखनीय सफलता दर्ज कर सकते हैं तो बाकी राज्य क्यों नहीं ? बिहार को तो इस मामले में सबसे आगे रहना चाहिए, आखिर यहीं से तो चार दशक पहले सुलभ शौचालय अभियान शुरू हुआ था जो आज देश-विदेश में मजबूती के साथ आगे बढ़ रहा है।

खबर है कि ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ नारे के साथ केन्द्र में सत्तारूढ़ मोदी सरकार में सार्वजनिक शौचालयों के साथ हर घर में शौचालय बनाने पर जोर दिया जाएगा, जिसके लिए अपेक्षित वित्तीय मदद भी मुहैया कराई जाएगी। स्वच्छता के साथ शुद्ध पेयजल को उच्च प्राथमिकता देने के भी साफ़ संकेत हैं। लेकिन पूरे मामले में राज्य सरकारों की भूमिका तो महत्वपूर्ण रहेगी ही, साथ ही रहेगी अहम भूमिका हर प्रबुद्ध नागरिक, सामाजिक संगठनों व समाचार माध्यमों की, क्योंकि बिना व्यापक जनजागरण एवं जन सहभागिता के ऐसे अभियान को तीव्रता से लक्ष्य तक पहुंचाना कठिन तो है ही।

                   और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं
#  प्रवक्ता . कॉम पर प्रकाशित

Tuesday, July 8, 2014

आज की कविता : सार्थक कोशिश

                                             - मिलन सिन्हा 
The Hat Is Beside Woman Sitting On The Beach Stock Photo
सार्थक कोशिश  

सागर तट पर  
अकेले बैठे 
दूर तक 
लहरों को आते-जाते देखना 
उसमें, फिर खुद में, खो जाना 
एक सार्थक कोशिश है 
अपने 'स्व' को ढूंढने का 
उसे बचाये रखने का 
इस कोलाहल भरे 
निरंतर बढ़ते महानगर में। 

                 और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं

प्रवक्ता . कॉम पर प्रकाशित

Tuesday, July 1, 2014

आज की बात: आखिर अच्छे दिन ऐसे ही तो नहीं आ जाएंगे, क्यों ?

                                                                               - मिलन सिन्हा
modiलोकसभा चुनाव के गहमागहमी के बाद एक बार फिर तेल का वही पुराना किस्सा प्रारम्भ हो गया है, रसोई गैस के रियायती सिलेंडर के नौ-बारह वाली कथा भी साथ में चलने लगी है। बताने की जरूरत नहीं है कि तेल के दाम में बढ़ोतरी का व्यापक प्रभाव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से आम लोगों के उपयोग की सभी चीजों एवं सेवाओं पर पड़ना लाजिमी है। लेकिन क्या बड़े-बड़े वादों के साथ चुनाव जीत कर संसद व विधान मंडल में जानेवाले हमारे प्रतिनिधि-प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक को वाकई आम जनता को होने वाली परेशानी से कोई खास मतलब है, जिन्हें जनता के ही पैसे से असीमित तेल खर्च करने की आजादी इस आजाद गणतंत्र में सहज प्राप्त है? यह सचमुच विचारणीय विषय है, विशेषकर आज के सन्दर्भ में जब कि देश की जनता ने एक ऐसी सरकार को केन्द्र में सत्तारूढ़ किया है जिसने यह स्पष्ट भरोसा दिया है कि ‘अच्छे दिन आनेवाले हैं।’

मंत्रियों, बड़े नेताओं व अधिकारिओं के काफिले के साथ दौड़ती मोटर गाड़ियों को देखें तो आपको तेल सहित करदाताओं के पैसे से जुटाए अन्य संसाधनों के अपव्यय का सहज अंदाजा हो जाएगा। बड़े स्कूल, कॉलेज, मॉल, सिनेमा हॉल, सब्जी बाजार आदि के पास आपको यथासमय रहने का मौका मिलने पर स्वतः पता चल जाता है कि मंत्रियों, नेताओं, अधिकारियों के द्वारा सरकारी वाहनों का कितना और कैसा दुरुपयोग शुद्ध निजी कार्यों के लिए किया जाता है, जिस पर हजारों करोड़ रूपया साल दर साल खर्च होता है।

ज्ञातव्य है कि भारत में सिर्फ यात्री वाहनों की संख्या चार करोड़ से ज्यादा है। हर साल देश में 110 लाख वाहन का उत्पादन होता है। भारत विश्व के दस बड़े वाहन उत्पादक देशों में से एक है। लेकिन विडंबना है कि देश में खनिज तेल जरूरत की तुलना में मात्र 20% है, अर्थात देश के कुल तेल खपत का 80 % आयात से पूरा किया जाता है, जिस पर वित्त वर्ष 2012 -13 में 164 बिलियन डालर (यानी करीब 10 लाख करोड़ रूपया) चुकाना पड़ा था जिसके चलते हमारा करंट अकाउंट डेफिसिट (चालू खाता घाटा) और बढ़ गया। गंभीर विषय यह है कि देश में तेल पर चलनेवाले वाहनों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है; सड़कें छोटी पड़ती जा रही हैं; जाम की स्थिति आम हो गई है; वायु प्रदूषण बढ़ता जा रहा है; देश की राजधानी विश्व के कुछ सबसे बड़े प्रदूषित शहरों में शामिल हो गया है; बच्चे, बूढ़े सभी भीड़ भरे सड़कों पर हलकान हो रहे हैं; सड़क दुर्घटनाओं की संख्या भी निरंतर बढती जा रही है और इन सबका दुष्प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था से लेकर आम लोगों के सेहत पर पड़ रहा है। 

कहने का सीधा अभिप्राय यह है कि बिना वक्त गंवाए देशभर के सरकारी महकमे में तेल के खपत को अत्यधिक कम किया जाना निहायत जरूरी है जिसकी शुरुआत केंद्र एवं राज्यों के मंत्रियों और अधिकारियों द्वारा निजी कार्यों के लिए सरकारी वाहन का उपयोग बंद करने से हो। इससे एक सार्थक सन्देश आम लोगों तक जाएगा। देश के प्रधानमंत्री और राज्यों के मुख्य मंत्रियों को अपने अपने काफिले में कम से कम गाड़ियों को शामिल करने का निर्णय स्वयं लेना चाहिए जिससे खर्च में कटौती हो। हां, इसके साथ-साथ अन्य अनेक ज्ञात उपाय तेल के दुरुपयोग को रोकने और खपत को कम करने के दिशा में किये जाने के जरूरत तो है ही। आखिर अच्छे दिन ऐसे ही तो नहीं आ जाएंगे, क्यों ?

                  और भी बातें करेंगे, चलते-चलते । असीम शुभकामनाएं
# प्रवक्ता . कॉम पर प्रकाशित