Wednesday, September 18, 2013

व्यंग्य कविता : खाने में कैसी शर्म

                                                       - मिलन सिन्हा
कसमें वादे  निभायेंगे न हम
मिलकर खायेंगे जनम जनम

जनता ने चुनकर भेजा है
चुन- चुनकर खायेंगे
पांच साल बाद खाने का कारण
विस्तार से उन्हें बतायेंगे

कसमें वादे  निभायेंगे न  हम
मिलकर खायेंगे जनम जनम

हीरा-मोती, सोना-चांदी तो है ही  
बस थोड़ा  और रुक जाइये
जंगल,जमीन के साथ साथ
कोयला भी सब खा जायेंगे

कसमें वादे  निभायेंगे न  हम
मिलकर खायेंगे जनम जनम

छोड़ दिया जब लज्जा व शर्म
तब काहे का कोई  गम
जारी रहेगा यूँ ही खाने का खेल
फूटे करम तभी जाना पड़ेगा जेल

कसमें वादे  निभायेंगे न हम
मिलकर खायेंगे जनम जनम

खाने का अब चल पड़ा एक सिलसिला  है
सचमुच,खाना विज्ञानं नहीं एक कला है
 खाते- खाते लोग कहाँ - कहाँ पहुँच जाते हैं
क्या ऐसे पराक्रमी लोग कभी पछताते हैं ?

कसमें वादे  निभायेंगे न हम
मिलकर खायेंगे जनम जनम !

                   और भी बातें करेंगे, चलते-चलते असीम शुभकामनाएं

प्रवासी दुनिया .कॉम पर प्रकाशित, दिनांक :18.09.2013

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